भोपाल, संवाददाता : भोपाल गैस त्रासदी की 41वीं बरसी एक बार फिर दर्द, जहर और unanswered सवालों की वही कहानी दोहरा रही है। 1984 की उस भयावह रात को 41 साल बीत चुके हैं, लेकिन आज भी हजारों परिवार न इलाज पा रहे हैं, न इंसाफ।
MIC गैस का जहर अब तीसरी पीढ़ी के खून में पहुंच चुका है, जहां बच्चों में शारीरिक विकृतियां, कैंसर, कमजोर दिमाग और विकास में देरी आम हो चुकी है।
सरकारी अस्पतालों में पीड़ितों के मुताबिक इलाज नहीं, बल्कि ‘इंतजार की डोज’ मिलती है। यही वजह है कि दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी आज भी भारत की सबसे लंबी चल रही हेल्थ इमरजेंसी बनी हुई है।
3 दिसंबर 1984 – कैलेंडर की वो काली रात
उस रात भोपाल की हवा में ऑक्सीजन नहीं, मौत घुली हुई थी। यूनियन कार्बाइड प्लांट से निकली मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस ने हजारों जिंदगियां निगल लीं और लाखों को जिंदगीभर का दर्द दे दिया।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी वही है ‘मौत तो उस रात आई थी, लेकिन हमें जीते जी कौन मार रहा है?’ जेपी नगर की गलियों में आज भी वही कड़वाहट, वही पीड़ा और वही सवाल गूंजते हैं।
आज भी जहर सांसों में बह रहा है?
1984 की कहानी को बीता हुआ समझना सबसे बड़ा भ्रम है। भोपाल आज भी गैस को सांसों में ढो रहा है।
कारखाने से कुछ कदम दूर बसे जेपी नगर में लोग उम्र से नहीं, जहर से बूढ़े हो रहे हैं।
70 वर्षीय नफीसा बी चार कदम चलें तो सांस टूट जाती है। गैस ने उनके पति और तीन बच्चे छीन लिए।
66 वर्षीय अब्दुल हफीज थोड़ी बात करते ही खांसने लगते हैं। आज हाथ-पैर तक उठाना मुश्किल है।
60 वर्षीय शाहिदा बी कहती हैं ‘अम्मी… अम्मी…’ कहते हुए साढ़े आठ साल के बेटे ने गोद में दम तोड़ा था। पति को कैंसर हुआ और वह भी नहीं रहे।
ये सिर्फ तीन कहानियां नहीं, हजारों घरों की सामूहिक चीख हैं जो आज भी सुनाई देती है।
इलाज के नाम पर ‘वेटिंग लिस्ट’
भोपाल मेमोरियल अस्पताल पीड़ितों के नाम पर बना, लेकिन पीड़ितों का आरोप है- दवाएं खत्म, डॉक्टर कम, जांच के लिए लंबी कतारें। हर बीमारी का एक ही जवाब ‘गैस का असर है, अब जिंदगी ऐसे ही चलेगी।’ नतीजा ज्यादातर पीड़ित महंगे प्राइवेट अस्पतालों का सहारा लेने को मजबूर हैं।
