प्रयागराज, संवाददाता : धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो प्रयागराज में शुरू हुए कल्पवास में एक कल्प का पुण्य मिलता है। शास्त्रों में एक कल्प का मतलब ब्रह्मा का एक दिन बताया गया है। कल्पवास का वर्णन महाभारत और रामचरितमानस में भी है। एक माह तक संगम तट पर चलने वाले कल्पवास में कल्पवासी को जमीन पर सोना पड़ता है। इस दौरान एक समय का आहार या निराहार रहना होता है। तीन समय गंगा स्नान करने की अनिवार्य़ता भी है। महाभारत के अनुसार सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या का जो फल है, वह माघ मास में संगम पर कल्पवास कर पाया जा सकता है।
मान्यताओं के अनुसार माघ माह में सभी तीर्थों को अपने राजा से मिलने प्रयागराज आना पड़ता है। गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम पर स्नान करके यह तीर्थ और देवता धन्य हो जाते हैं। इसी लिए कहा जाता है कि कल्पवास के दौरान स्नान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
क्या है अर्धकुंभ और कल्पवास की परंपरा
अर्धकुंभ और कल्पवास की परंपरा केवल प्रयाग और हरिद्वार में ही है। इतिहासकारों के अनुसार कुंभ मेले का पहला विवरण मुगलकाल के 1665 में लिखे गए गजट खुलासातु-त-तारीख में मिलता है। कुछ इतिहासकार इस तथ्य को विवादित करार देते हैं, वे पुराणों और वेदों का हवाला देकर कुंभ मेले को सदियों पुराना मानते हैं। बहरहाल इतिहासकार यह भी मानते हैं कि 19वीं शताब्दी में बारह बरस में मिलने वाले धर्माचार्यों को जब लगा कि उन्हें बीच में भी एक बार एकत्र होना चाहिए तो छह बरस पर अर्ध कुंभ की परंपरा की नींव पड़ी।
हर्षवर्धन और ह्वेनसांग का कुंभ वर्णन
कई इतिहासविद सम्राट हर्षवर्धन के काल से संगम पर कुंभ के आयोजन की बात करते हैं, लेकिन यही बात अंतिम नहीं है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि हर छठवें वर्ष संगम तट पर सम्राट हर्षवर्धन की ओर से कुंभ का आयोजन होता था। सम्राट यहां धन-वस्त्र ही नहीं, शासन के प्रतीक चिह्न राजदंड को भी दान कर देते थे। फिर, बहन राज्यश्री से चीवर (वस्त्र का टुकड़ा) मांगकर पहनते और अपने राज्य कन्नौज लौट जाते थे।