मोहाली, संवाददाता : रामलला की प्राण प्रतिष्ठा में अब कुछ ही समय बाकी है। राम श्रद्धालुओं की बरसों की मनोकामना पूर्ण होने वाली है। पूरे देश में ऐसे राम के दीवाने हैं जिन्होंने राम मंदिर के लिए संघर्ष किया। किसी ने भक्ति दिखाई तो कोई हठ में आ गया। ऐसे ही एक राम भक्त हैं मोहाली के 89 वर्षीय बुजुर्ग दौलतराम, जिन्होंने 31 वर्षो से चाय नहीं पी है।
दो दिसंबर, 1992 को अयोध्या में खड़े होकर दौलतराम ने कसम खाई थी कि जब तक राम मंदिर नहीं बनेगा, वह चाय नहीं पिएंगे। अब 22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद मार्च में वह अयोध्या में जाकर सर टेकेंगे, जिसके बाद वे चाय का सेवन करेंगे।
दौलतराम कंबोज वासी सेक्टर-68 ने कहा कि एक दिसंबर, 1992 में वह अपने साथ 20 लोगों के जत्थे के साथ अयोध्या गए थे। वहां पांच दिवसीय एक समागम आयोजित किया गया था। इसमें देश के बड़े राजनेता अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती आदि मौजूद थे। वहां बैठक की जाती थी, जिसमें राम मंदिर के हित के लिए की जानी वाली प्रतिक्रिया पर चर्चा की जाती थी । वहीं उनके मन में त्याग भावना जागी, जिसके बाद उन्होंने राम मंदिर न बनने तक चाय ना पीने की शपथ लिया था ।
12 वर्षो की उम्र में विभाजन देखा
दौलतराम कंबोज ने कहा कि विभाजन से पहले वह पाकिस्तान के जिला मीतगुंबरी, गांव नजमदीन में रहते थे। जब देश का विभाजन हुआ, उनकी उम्र केवल 12 वर्ष थी। दौलत राम कहते हैं कि आंखों में अब भी वह दृश्य चलते हैं, जब हिंदू-मुसलमान दंगे हो रहे थे। लोग अपना घर-बार छोड़ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पैदल यात्रा कर पहुंच रहे थे। वहीं उन्होंने फाजिल्का में सरेआम कत्ल-ए-आम होते हुए भी देखा। इसके बाद उन्होंने 1955 में मैट्रिक पास कर आरएसएस से जुड़ गए। वहीं दो वर्ष उन्होंने संघ के विस्तारक बन कर कार्य किया। इसके बाद वह लोकहित के कार्यों से जुड़े और कई समाजसेवी कार्य भी किए।
उधम सिंह से मिली प्रेरणा
25 वर्ष की उम्र में जब उन्हें शहीद सरदार ऊधम सिंह के बारे में पता चला तो वह काफी प्रभावित हुए। इसके बाद दौलत राम कंबोज ने नौजवान सभा की शुरुआत किया । जिसमें उनके साथ कई लोग जुड़े थे। 1964 में उन्होंने शहीद सरदार ऊधम सिंह की अस्थियां ब्रिटिश से मंगवाने का प्रण लिया। इसके बाद 1974 में उन्होंने ज्ञानी जैल सिंह के साथ बैठक में मांग उठाई। जिस पर उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ चर्चा कर उनकी बात रखी। इसी वर्ष में इसका असर दिखाई दिया और ब्रिटिश सरकार में शहीद सरदार ऊधम सिंह की अस्थियां भारत भेजवा दी गई ।