Republic Samachar- Samarth Singh II ब्रिटिश बुक डिपो जो लखनऊ का सबसे पुराना और मशहूर किताब विक्रय केंद्र था, कल मंगलवार को हमेशा के लिए बंद होगया। हज़रतगंज में स्थित, वर्ष 1930 में स्थापित ब्रिटिश बुक डिपो, पुस्तक प्रेमियों का चर्चित ठिकाना था, जोकी अब सिर्फ इतिहास बन कर रह गया।
क्यों बंद हुआ ब्रिटिश बुक डिपो ?
लोगों की किताबों के प्रति गिरती रुची, साहित्य से बढ़ती दूरी और टेक्नोलॉजी से बढ़ती नज़दीकियाँ इस बुक डिपो के बंद होने का कारण बनी।
बुक डिपो के संचालक सूरज कक्कड़ ने कहा की, “कैसे चलाते दुकान, जब कोई किताबें पढ़ने आता ही नहीं, अब कोई किताबें पढ़ना नहीं चाहता. सभी मोबाइल के आदि हैं”।
सूरज कक्कड़ जी ने बताया की पहले उनकी दुकान का किराया डेढ़ सौ रूपए था, जो अब बढ़ के पंद्रह सौ रूपए होगया है, वह रोज़ खुदही दुकान खोलने और बंद करने से परेशान होगये थे, उनकी बेटियों ने डिपो चलाने से मना कर दिया था, इसीलिए उन्हें ना चाहते हुए भी दुकान खाली करनी पड़ी।
कवियों तथा नेताओं की थी पहली पसंद
लखनऊ का यह बुक डिपो एक बहुत ही लंबे इतिहास का दर्पण रहा है, इसने नेहरू परिवार की तीन पीढ़ियों का भी साथी रहा, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू यहाँ से पुस्तकें खरीदते थे, इंदिरा गाँधी भी यहाँ राजीव गाँधी तथा संजय गाँधी के साथ आती थी, बड़ी हस्तियों के साथ अनेकों दिग्गज कवि भी इस बुक डिपो से जुड़े रहते थे।
सैकड़ों किताबें हुई बेघर
बुक डिपो के बंद होने के बाद, अनेकों किताबें गाड़ियों में रखकर सूरज कक्कड़ जी के घर पर पहुँचा दी गईं। सूरज जी का कहना ही की वह इन किताबों को आश्रमों में दान कर देंगे, कॉलेजों को बेच देंगे, घर के बहार दुकान लगा देंगे लेकिन कभी इन्हें रद्दी में नहीं बेचेंगे, यह उनके किताबों के प्रती प्रेम को दर्शाता है।